रेडियोएक्टिव चपातियां
लंदन: भारतीय मूल के लोगों का विदेशों में बसना एक लंबे अरसे से जारी है। ब्रिटेन, यूरोप, अमरीका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया, इंडोनेशिया, पूर्वी और दक्षिण अफ़्रीका, हाँगकाँग आदि देशों में भारतवंशियों को देखा जा सकता है। गिरमिटिया देशों में तो भारतवंशियों को ज़बरदस्ती समुद्री रास्ते से खेतों में काम करने के लिये मॉरीशस, फ़िजी, सुरीनाम और त्रिनिदाद जैसे देशों में ले जाकर बसाया गया।
ब्रिटेन में पचास और साठ के दशक में भारत के पंजाब और गुजरात राज्यों से बहुत से युवा बसने के लिये आए। वे अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे और उनका इस्तेमाल केवल छोटे कामों जैसे कि सफ़ाई या घरेलू कामों के लिये किया जाता था। अभी भारतीय रंगभेद नीति का शिकार रहते थे। बराबरी का अहसास पैद होना शुरू नहीं हुआ था।
वहां से वर्तमान की यात्रा लगभग हैरान कर देने वाली है। उन दिनों यदि किसी भारतीय के पास कार होती थी तो सोचा जाता था कि या तो वह भारतीय हाई कमीशन में काम करता है या फिर कोई राजे-रजवाड़े का सदस्य है। आज यदि किसी भारतीय के घर में एक ही कार हो तो समझा जाता है कि बेचारा लोअर मिडल क्लास का है।
यह सब पाठकों को बताना आवश्यक है क्योंकि हम जिस ज़माने के ब्रिटेन की बात करने जा रहे हैं वो 1960 का दशक ही था। हम बात करेंगे पश्चिमी मिडलैण्ड के शहर कॉवेन्टरी की। पिछले वर्ष कॉवेन्टरी का नाम कुछ नकारात्मक कारणों से सुर्खियों में आ गया। वहां की विपक्षी लेबर पार्टी की सांसद ताईवो ओवाटेमी ने 1960 के दशक में हुई एक मेडिकल रिसर्च में जांच की मांग की है। इसके तहत भारतीय मूल की 21 महिलाओं को रेडियोएक्टिव रोटियां खिलाई गई थीं। द गार्जियन समाचारपत्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक महिलाओं की रोटियों में आयरन-59 के आइसोटोप्स मिलाए गए।
रेडियो-एक्टिव रोटी खिलाने के बाद महिलाओं को ऑक्सफोर्डशायर में एटॉमिक एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट ले जाया गया था। जहां उनके रेडिएशन लेवल की जांच की गई और ये पता लगाया गया कि उनका शरीर कितना आयरन जज़्ब कर पाया । सांसद ओवाटेमी ने कहा है कि वे पार्लियामेंट इस मामले में डिबेट की मांग रखेंगी। वे चाहती हैं कि मामले की जांच में ये पता लगाया जाना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ। एक दूसरी सांसद ज़ारा सुल्ताना ने भी मामले की जांच की मांग में ओवाटेमी का साथ देने की बात कही है।
यह देख कर अच्छा लग रहा है कि एक महिला ब्रिटिश सांसद 55 साल बाद भारतीय मूल की महिलाओं के साथ हुई ज़्यादती के बारे में ब्रिटेन की संसद में यह मुद्दा उठाने को कटिबद्ध है। मेरे लिये निजी तौर पर यह संतुष्टी की बात है क्योंकि मैं स्वयं पिछले 20 वर्षों से लेबर पार्टी का कार्डधारी मेंबर हूं।
कार्डिफ़ यूनिवर्सिटी के एक प्रोफ़ेसर ने इस मेडिकल रिसर्च को अंजाम दिया था। इस रिसर्च का मूल मकसद महिलाओं के शरीर में आयरन की कमी को दूर करना बताया गया था। जिन भारतीय मूल की महिलाओं को रेडियोएक्टिव रोटियां खिलाई गईं, उनमें ये जांचने का प्रयास किया गया था कि आयरन की कमी दूर हो पाई या नहीं… इस रिसर्च पर से पर्दा 1995 में पहली बार उठा था। जिसके बाद रिसर्च के लिए फ़ंडिंग करने वाली मेडिकल रिसर्च काउंसिल ने कहा था कि टेस्ट में रिस्क काफ़ी कम था।
आमतौर पर इन्सानी शरीर कई तरह की रेडिएशन का सामना करता है… एक्स-रे मशीन से लेकर सूरज की किरणों और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स तक में रेडिएशन होता है… हालांकि रेडिएशन की मात्रा अधिक होने पर ये काफ़ी ख़तरनाक हो सकता है। यदि कोई इन्सान प्रतिदिन रेडिओएक्टिव तत्वों के संपर्क में आता रहता है तो उसे कैंसर होने का ख़तरा हो सकता है। एक आम इन्सान 500 रेम तक के रेडिएशन को झेल सकता है, इसके बाद उसकी मौत भी हो सकती है।
रेडियोएक्टिव तत्वों की भयावहता जानने के बावजूद गर्भवती महिलाओं तक पर प्रयोग किया गया। ये ऐसी प्रवासी महिलाएं थीं, जो उन्हीं दिनों पंजाब और गुजरात से ब्रिटेन पहुंची थीं, और कम पढ़ी लिखी थीं। ऐसे में ज़ाहिर है कि वे नहीं जानती रही होंगी कि उनके साथ क्या हो रहा है। बाद में फॉलोअप भी नहीं हुआ कि महिलाएं ज़िन्दा रहीं या नहीं। या फिर क्या वे रेडियोधर्मी तत्वों के सीधे संपर्क में आने के बाद कैंसर या किसी गंभीर बीमारी का शिकार तो नहीं हो गईं… या फिर उनकी संतानें किसी प्रकार के शारीरिक विकार के साथ तो पैदा नहीं हुईं।
भारतीय मूल की ये मासूम औरतें अपने-अपने जी.पी. (पारिवारिक डॉक्टर) के पास छोटी-मोटी बीमारियों के सिलसिले में गईं थीं। किसी को माइग्रेन था तो किसी को आरथराइटस; किसी को कमज़ोरी की शिकायत थी को किसी को लगातार ज़ुकाम की। दरअसल उन दिनों डॉक्टरों में ये सोच पैली हुई थी कि एशियाई मूल के लोगों के भोजन में पौष्टिक तत्वों की कमी रहती है जिस कारण उनमें ख़ून की कमी यानी कि एनीमिया हो जाता है।
यह चिन्ता का विषय बन गया कि जिन औरतों को बलि का बकरा बनाया गया और रेडियो एक्टिव रोटियां खिलाई गयीं उन्हें अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान नहीं था। वे न तो अंग्रेज़ी समझ पाती थीं और न ही बोल पाती थीं। और उन्हें यह बताया ही नहीं गया कि उन पर कोई प्रयोग किया जा रहा है। यह एक प्रकार का मेडिकल धोखा भी कहा जा सकता है।
एक इतिहासकार ने एक्स थ्रेड पर एक पोस्ट लिख कर इस मुद्दे में लोगों की दिलचस्पी फिर से जगा दी। (एक्स थ्रेड को पहले ट्विटर कहा जाता था) उनके एक्स थ्रेड को 66 लाख से अधिक बार देखा गया। उन्होंने कहा कि जिन महिलाओं पर प्रयोग किया गया था, उनकी किसी ने परवाह नहीं की और यह देखने के लिए संपर्क नहीं किया कि क्या वे इस प्रयोग के बाद बीमार हुईं या उनकी सेहत पर ख़राब असर पड़ा।
सांसद ताईवो ओवाटेमी ने अपने एक्स थ्रेड में लिखा कि उनकी चिन्ता के केन्द्र में वो महिलाएं और उनके परिवार के अन्य सदस्य हैं जिनको इस प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा। मैं इस बारे में जो कुछ बी पढ़ा और सुना है उससे एक बात तो साफ़ है कि उन्हें न तो बलि का बकरा बनाए जाने की सूचना दी गयी और न ही उनकी सहमति प्राप्त की गई।
1998 में इस मामले को लेकर हंगामा हो गया। हंगामे के बाद एक जांच कमेटी बनाई गई। इस लीपापोती कमेटी ने दावा किया कि स्टडी में शामिल महिलाओं से कुछ भी छिपाया नहीं गया था। उन्हें सब कुछ अच्छी तरह से समझाया गया था।
हैरानी की बात यह है कि कमेटी ने यह भी माना कि शायद बहुत समझाने के बाद भी उन महिलाओं को समझ न आया हो कि उनके शरीर पर क्या प्रयोग किया जा रहा है? वहीं कमेटी के काम काज पर सवाल उठाते हुए ब्रिटिश सांसद ने कहा कि अगर सब कुछ पारदर्शी था तो महिलाओं की आगे जांच क्यों नहीं हुई। प्रयोग के नतीजे क्यों सार्वजनिक नहीं किए गए? यहां तक कि प्रयोग में शामिल किसी भी महिला का कुछ अता-पता क्यों नहीं लगने दिया गया।
चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Medical Research Council) और कहा जाए तो संपूर्ण चिकित्सा अनुसंधान समुदाय (Medical Research Council) के काम के लिए जनता और रोगी की भागीदारी, नैतिक कार्यप्रणाली और आपसी विश्वास महत्वपूर्ण है। इस तरह हमारे अनुसंधान में जनता और रोगी दोनों की भागीदारी शामिल है, लेकिन हमारे हर काम में पारदर्शिता, जवाबदेही और सार्वजनिक चुनौती भी शामिल रहने चाहिएं। हमें निष्पक्ष एवं ईमानदार होना भी चाहिये और दिखना भी चाहिये।
प्रीतम कौर अपने डॉक्टर के पास सिरदर्द के बारे में बात करने गई थी और उनकी पड़ोसन घुटनों के दर्द से परेशान थी। दोनों को बिना बताए बलि का बकरा बना लिया गया और कुछ बताया भी नहीं गया। जब दोनों पर यह राज़ खुला तो वे पूरी तरह से हैरान थीं। दोनों की एक ही प्रतिक्रिया थी कि यदे हमें पहले से बताया गया होता तो हम कभी भी ऐसी ख़तरनाक रोटियां नहीं खाते।
एक तरफ़ बातें हैं और दूसरी तरफ़ है ठोस सच्चाई। और सच्चाई यही है कि सच को आज भी कहीं छिपाया जा रहा है… दबाया जा रहा है। कोई भी न तो अपनी ज़िम्मेदारी मानने को तैयार है और न ही उस रिसर्च के नतीजे बताने को तैयार है। भारतीय मूल की औरतें आज भी भारतीय भोजन खा रही हैं। सिरदर्द आज भी होता है… घुटनों में दर्द आज भी होता है और एनीमिया से लोग आज भी परेशान हैं; मगर रेडियो एक्टिव चपातियों का राज़ कहीं गहरे में दफ़न है। लगता नहीं कि कभी भी वो भेद खुल पाएगा।
लेखक लंदन निवासी वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं.