अब तो लगने लगा है कि सरकार पुरस्कारों को भी चुनाव

साहित्य में सामूहिक विवाह… !

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04,फरवरी 2024, (अपडेटेड 30,जनवरी 2024 05:53 PM IST)

लंदन: सितम्बर और जनवरी का महीना हिन्दी साहित्य में सामूहिक विवाहों का होता है। पूरे विश्व में पुरस्कारों, सम्मानों और अलंकरणों का दौर शुरू हो जाता है। कोरोना काल में तो ऐसे आयोजनों की बाढ़ सी आ गई। बस ज़ूम या किसी अन्य माध्यम से ऑनलाइन इकट्ठे हुए; और ऑनलाइन ही एक स्मृति चिन्ह दिखा दिया गया… न कोई ख़र्चा न मेहनत… बस हो गये सम्मान समारोह… सम्मान देने वाला ताली बजाता अपना कंप्यूटर बंद कर देता और लेने वाला अपने घर में बैठा-बैठा अपना कोट उतार कर घर के कपड़ों में वापिस! कुछ संस्थाओं ने पुरस्कार की राशि बनाए रखी। 

कुछ महीने पहले एक पुरस्कार देने वाली संस्था और एक लेखक में हो गई बहस। संस्था देना चाह रही थी ‘अंतर्राष्ट्रीय कोरोना देव सम्मान’ जबकि पुरस्कृत होने वाला लेखक का मानना था कि इसे ‘वैश्विक कोरोना देवी पुरस्कार’ कहा जाए। लेखक की बात में भी दम था। उसका कहना था कि सुनने में सम्मान बहुत ग़रीब शब्द लगता है। सब को पता चल जाता है कि इसके साथ कोई राशि नहीं दी जा रही। केवल स्मृति चिन्ह और सस्ती सी शॉल मिलने वाली है। मगर पुरस्कार से कम-से-कम यह उम्मीद तो बंधती है कि शायद इसमें कहीं लक्ष्मी जी का भी कोई किरदार हो। मुख्य लड़ाई इस बात पर थी कि कोरोना ‘देव’ है या ‘देवी’।

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आयोजक का मानना था कि कोरोना एक वायरस है और सभी भाषाओं में कोरोना पुल्लिंग है। कहीं कोरोना को लेकर स्त्रीलिंग में कोई बातचीत नहीं होती। तो फिर भला कोरोना को देवी कैसे पुकारा जा सकता है। संस्था ने तो चंदा भी इकट्ठा करना शुरू कर दिया है। जल्दी ही उनके कस्बे में कोरोना देवता के मंदिर का निर्माण शुरू होने वाला है। हमारी सोच आर्य-समाज के निकट है क्योंकि कोरोना देवता का कोई मानव-चेहरा नहीं होगा। अतः इस पर मूर्ति पूजा का आरोप नहीं लग सकता। 

वहीं लेखक के अपने तर्क थे। उसका कहना था कि कोरोना केवल एक शक्ति है। उसका कोई मानव-स्वरूप नहीं है। और शक्ति तो केवल दुर्गा का स्वरूप हो सकती है। कोरोना की सबसे बड़ी शक्ति है लगातार खांसी होना… ठीक होने के बाद भी इन्सान खांसता रहता है। दुर्गा के आठ रूपों से तो परिचित हैं ही। अब यह दुर्गा का एक अलग रूप है। इसलिये पुरस्कार और मंदिर दोनों का नाम कोरोना देवी ही होना चाहिये।

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अंदर की बात यह थी कि इस पुरस्कार के लिये पैसा लग रहा था लेखक का। भला लक्ष्मी मैय्या के सामने किसी आयोजक की क्या औक़ात हो सकती है। आयोजक तो अपने पहले कार्यक्रम में बारह लेखकों को सम्मानित करना चाह रहे थे। एक महीने में एक के हिसाब से। मगर लेखक का आग्रह था कि पहले कार्यक्रम में केवल उन्हें ही पुरस्कृत किया जाए। अन्यथा समाचारपत्रों में उनका योगदान डायल्यूट हो जाएगा। डायल्यूट बोलने में लेखक और समझने में आयोजक दोनों को ख़ासी मुश्किल हो रही थी। 

आयोजक दलील दे रहे थे – “साहिब, बिहार सरकार तो राजभाषा पुरस्कार के लिये चौबीस हिन्दी प्रेमियों का सम्मान करती है। हम तो उससे आधे की बात सोच रहे हैं।” अंततः मामला तय हो ही गया। पहले सम्मान के लिये पूरा ख़र्चा लेखक स्वयं उठाएंगे और दूसरे कार्यक्रम के लिये पचास प्रतिशत ख़र्चे का ज़िम्मा उठाएंगे। यानी कि दूसरे आयोजन से हर वर्ष बारह साहित्यकारों को सम्मानित किया जा सकेगा।

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आयोजक अपने चारों ओर निगाह दौड़ा कर मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। उनके दिमाग़ में एक योजना पनप रही थी कि जल्दी ही वे पूरे विश्व में एक आयोजन में अधिक से अधिक साहित्यकारों, अनुरागियों और सेवकों का सम्मान कर लिम्का और गिनेस बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स में अपनी संस्था का नाम दर्ज करवा सकेंगे। वे कम से कम निनयान्वे लोगों का सम्मान करना चाहते थे। बेचारा आम आदमी यह सोच कर हैरान होता था कि ये बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स शीतल पेय या बीयर बनाने वाली कंपनियां ही क्यों करती हैं? क्या रिकार्ड्स भी किसी नशे की ही तरह सिर चढ़ कर बोलते हैं!

इन्हीं पाठकों की ही तरह कुछ बेचारे किस्म के लेखक भी होते हैं। ये जुगाड़ू नहीं होते। न ही इन्हें इन सम्मान समारोहों में व्यवहार करने का कोई प्रशिक्षण मिलता है। कभी-कभी गेहूं में घुन की तरह इन बेचारों का भी सम्मान के लिये चयन हो जाता है। उन्हें समझ ही नहीं आता कि आयोजन तो हो रहा है मगर सम्मान कहां है। एक रेवड़ की तरह तथाकथित सम्मानित साहित्यकार कतारबद्ध होकर अपने-अपने नाम का कर रहे हैं इंतज़ार… बहुत बार तो नाम और परिचय किसी अन्य साहित्यकार का चल रहा होता है और सम्मानित हो रहा होता है कोई और !  

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वैसे तो सम्मानित साहित्यकार को कभी कुछ बोलने का अवसर ही नहीं दिया जाता। यदि मौक़ा दिया भी जाता है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह आयोजक संस्था की शान में कसीदे पढ़े। आयोजक किसी की बातों में आने वाला नहीं है। उसका सीधा सवाल है, “हर वर्ष सौ से अधिक लोगों को पद्मश्री सम्मान मिलता है। राष्ट्रपति भवन में उस सम्मान रेल में बैठने के लिये लोग कितने लालायित रहते हैं। कितने जुगाड़ लगाए जाते हैं। कितने सांसद और मंत्रियों की सिफ़ारिश लगवाई जाती है। वहां कौन से आपकी शान में गीत गाए जाते हैं! वहां तो आपको इतनी भी अनुमति नहीं दी जाती कि आप अपनी मर्ज़ी से हिल भी सकें। फिर भी हर साल लोग फ़ील्डिंग करते हैं ताकि उन्हें बैटिंग का अवसर मिल सके। 

विश्व हिन्दी सम्मेलन में पुरस्कार पाने के लिये तो लोग महीने भर दिल्ली में तंबू ही गाड़ कर बैठे रहते हैं। जब तमाम कलाबाज़ियों के बाद साहित्यकार के नाम पुरस्कार घोषित हो जाता है तो वह शरमाते हुए कहता है – अरे!… कमाल है… मुझे तो कुछ पता ही नहीं था! मगर वे समझते नहीं हैं कि ये जो पब्लिक है ये सब जानती है।

वैसे साल में श्राद्ध एक बार आते हैं मगर हिन्दी जगत वर्ष में दो बार सम्मान समारोह-मयी हो जाता है। सितम्बर में हिन्दी दिवस और जनवरी में विश्व हिन्दी दिवस समारोह के अवसर पर बड़ी संख्या में साहित्यकारों का सम्मान होता है। बीच के महीनों में सामुहिक साहित्यक विवाहों का आयोजन चलते रहते हैं। इन आयोजनों से पहले ही संभावनाओं का खेल शुरू हो जाता है। हर व्यक्ति इस चक्कर में रहता है कि किसी न किसी तरह कुछ पुरस्कार तो हथिया ही लिये जाएं। पुराने ज़माने में वामपंथी और कांग्रेसी नेता ढूंढे जाते थे तो आजकल आर.एस.एस. और भाजपा के। विश्व हिन्दी सम्मान, पद्म सम्मान, साहित्य अकादमी सम्मान आदि… आदि की घोषणाओं की प्रतीक्षा की जाती है। अगले दिन या तो ख़ुशी के जाम टकराए जाते हैं या फिर ग़म ग़लत किया जाता है।

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अब तो लगने लगा है कि सरकार पुरस्कारों को भी चुनाव लड़ने का एक माध्यम बना रही है। इस बार के पद्म पुरस्कारों की सूची को जाति के आधार पर देखें तो इसमें 40 ओबीसी, 11 अनुसूचित जाति, 15 अनुसूचित जनजाति, 9 ईसाई, 8 मुसलमान, 5 बौद्ध, 3 सिख, 2 जैन, 2 पारसी और 2 अन्य धर्मों के लोग शामिल हैं। वहीं क्षेत्र के आधार पर देखें तो इसमें दक्षिण भारत सबसे आगे नजर आता है। जिन 5 लोगों को पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया है उनमें से 2 आंध्र प्रदेश से, 2 तमिलनाडु से हैं। कुल 132 में से 21 पुरस्कार दक्षिण भारत की झोली में गिरे हैं। एक मज़ेदार बात यह है कि निजी संस्थाओं को दस, बीस, तीस, चालीस हिन्दी साहित्यकार सम्मान के लिये मिल जाते हैं, भारत सरकार को एक भी ऐसी हस्ती दिखाई नहीं देती। 

हमारा मानना यह है कि सम्मान समारोह की गरिमा को बनाए रखने के लिये ज़रूरी है कि उसे ‘सामान समारोह’ न बनने दिया जाए। आज फ़्रेम किये गये मान-पत्र का सम्मान लगभग शून्य हो चुका है। हर व्यक्ति सोशल मीडिया पर अपने आपको मिले – साहित्य भूषण, साहित्य रत्न, साहित्य विभूति, साहित्य अलंकार – का चित्र फ़ेसबुक और ट्विटर पर साझा करते दिखाई देते हैं। इन सम्मानों की गरिमा पर सवालिया निशान उठ रहे हैं… इस विषय पर विचार करना ज़रूरी है। 

लेखक लंदन निवासी वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं.