कचरे से कैसे बना पुस्तकालय
लंदन: फ़्रांस में बहुत पुराने पुस्तकालय को आग से जला कर दंगाईयों ने भस्म कर डाला। ऐसी बहुत सी कहानियां हम इतिहास में पढ़ते रहे हैं जब आक्रांताओं ने देश के पुस्तकालयों और विश्वविद्यालयों को आग के हवाले कर दिया। इस बात को सोचते हुए मैं उस पाँच वर्ष पुरानी ख़बर पर पहुंच गया जो तुर्की में घटित हुई और हम सब के लिये एक प्रेरणादायक घटना के रूप में उभर कर सामने आई। इस महत्वपूर्ण घटना की भारत में अधिक चर्चा नहीं हुई।
बात कुछ यह भी है कि जब कभी हम कचरा उठाने वालों के बारे में सोचते हैं तो हमें भारतीय उपमहाद्वीप के कचरा उठाने वालों के चेहरे याद आते हैं या फिर जिन्हें हम जमादार या जमादारिन कहते हैं – उनके चेहरे। तुर्की एक इस्लामिक देश है मगर यह है युरोपीयन यूनियन का हिस्सा। यहां घरों में कचरे के लिये ‘बिन’ यानी कि कचरा पेटी होती हैं। लंदन में हरे रंग की कचरा पेटी में रसोई का कचरा; नीले रंग की कचरा पेटी में रीसाइकल करने वाला कचरा जैसे कि अख़बार, किताबें, शीशे और प्लास्टिक की बोतलें या फिर गत्ते के बक्से। और उन्हें ख़ाली करने के लिये बाक़ायदा एक बड़ी सी गाड़ी आती है जिसमें वर्दी पहन कर्मचारी होते हैं। जो हर सप्ताह आकर कचरा पेटी खाली कर जाते हैं। उनके साथ हर नागरिक बहुत तमीज़ से पेश आता है।
घटना तुर्की की राजधानी अंकारा की
जिस घटना का मैं ज़िक्र करने जा रहा हूं वो तुर्की की राजधानी अंकारा की है… बल्कि वहां के कचरा उठाने वाले कर्मचारियों की है। इस विषय पर 2018 में हमारे मित्र दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने अपने एक ब्लॉग में एक छोटा सा लेख भी लिखा था। यानी कि भाई दुर्गाप्रसाद की नज़रों से यह उल्लेखनीय ख़बर बच नहीं पाई।
अंकारा के चान्कया क्षेत्र के कचरा उठाने वाले कर्मचारियों ने देखा कि लोग अपने घरों की किताबें कचरे में फैंक देते हैं। 32 वर्षीय कचरा कलेक्टर सेरहाट बेतेमूर (Serhat Baytemur) यह देख कर ख़ासा विचलित होता था। उसे शायद पुस्तकों से प्यार था। उसका दिल इन पुस्तकों को कचरे में देख कर बार-बार कुछ नया कर गुज़रने का संदेश देता था।
एक आदमी के लिये कचरा, दूसरे के लिये ख़ज़ाना
कहावत है न कि जो एक आदमी के लिये कचरा होता है वो शायद किसी और के लिये ख़ज़ाना हो सकता है। कुछ ऐसा ही सेरहाट के मन में भी हो रहा था। उसने अपने मन की बात अपने साथियों के साथ साझा की। हम इन्सानों के बारे में सोचते हैं तो पूछते हैं कि मरने के बाद क्या होता है। शायद ये किताबें भी आपस में बात करती होंगी कि हमें कचरे की पेटी में फेंक दिया गया है… अब हमारा क्या होगा? सेरहाट से पहले कितनी किताबें री-साइकिल हो चुकी होंगी… इसका अंदाज़ा लगाना आसान नहीं। मगर किताबों के मसीहा के रूप में सेरहाट ने अपने विभाग के साथियों और सरकार को एक नई सोच प्रदान की।
उसने और उसके साथियों ने उन किताबों को एकत्रित करना शुरू किया और एक जगह सजा कर रखने का स्थान भी बना लिया। मगर अभी तक केवल एक विचार था कि किताबों को बचाया जाए। क्योंकि इन किताबों में बहुत सी बहुमूल्य किताबें थीं। कहा जाता है न कि बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद! जिन लोगों ने किताबें फेंक दी थीं उनके लिये किताबें बंदर के अदरक जैसी ही थीं। मगर सेरहत और उसके साथियों ने उन पुस्तकों के महत्व को समझा और सोचा कि ये किताबें युवा पीढ़ी के लिये यदि उपलब्ध हो जाएं तो उनको कितना लाभ होगा। ये किताबें ज्ञान का भंडार हैं और वे इन किताबों को री-साइकिल की मशीन में नहीं जाने देंगे।
किताबों को बचाने के लिए लाइब्रेरी बनाई जाए
बात ज़िले के मेयर एलपर तासदेलेन (Alper Tasdelen) तक पहुंची। उनके दिमाग़ में यह बात आई इन किताबों की एक लाइब्रेरी बनाई जा सकती है। उनके कहने पर क्षेत्र के लोगों का समर्थन मिला और इस प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया गया। जब एक बार सरकार का साथ हो गया तो एक पुस्तकालय बनाने का निर्णय ले लिया गया।
भाई दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने अपने ब्लॉग में सूचना दी है कि, “लोग आगे बढ़कर भी इन्हें किताबें सौंपने लगे और इस तरह इनका पुस्तकालय बनाने का सपना मूर्त रूप लेने लगा।”
“अब समस्या यह थी कि जो किताबें इकट्ठी हुई हैं उन्हें संजोया कहां जाए? किसी ने ध्यान दिलाया कि खुद इनके सफाई विभाग की एक इमारत बेकार पड़ी है। उसे देखा तो लगा कि अरे, यह तो पुस्तकालय के लिए आदर्श है। उसके लम्बे गलियारे और बड़े कमरे वाकई पुस्तकालय का आभास देते प्रतीत हुए. थोड़ी साफ़ सफाई और रंग-रोगन के बाद वह इमारत काम चलाऊ बन गई तो उसमें इन्होंने अपने कई महीनों के श्रम से एकत्रित की गई करीब छह हज़ार किताबों को व्यवस्थित कर अपने विभाग के कर्मचारियों और उनके परिवार जन को सुलभ कराना शुरु कर दिया।”
पुस्तकालय की ख्याति भी फैलने लगी
“लेकिन जैसे-जैसे किताबों का संग्रह बढ़ने लगा, इस पुस्तकालय की ख्याति भी फैलने लगी और शहर वासियों की मांग का सम्मान करते हुए इन लोगों ने अपने पुस्तकालय की सेवाएं विद्यार्थियों और शहर भर के पुस्तक प्रेमियों को भी सुलभ कराना शुरू कर दिया। नगर के महापौर का भी पूरा समर्थन इन्हें मिला और अब यह पुस्तकालय एक ऐसा स्थान बन चुका है जिस पर पूरे नगर को गर्व है।”
इस लाइब्रेरी में बच्चों की कॉमिक बुक्स से लेकर वैज्ञानिक अनुसंधान तक की किताबें मौजूद हैं। यहां तुर्की भाषा के साथ-साथ अंग्रेज़ी और फ्रे़ंच पुस्तकें भी उपलब्ध हैं। स्थानीय मीडिया के मुताबिक, सप्ताह में दो बार किताबें उधार ली जा सकती हैं। वहीं ज़रुरत के मुताबिक समय बढ़ाया भी जा सकता है। कमाल की बात यह है कि फ़िलहाल 17 श्रेणियों में पुस्तकों को बांटा गया है। हर विषय पर इस पुस्तकालय में पुस्तकें उपलब्ध हैं।
कचरा श्रमिकों के परिवार के लिये पुस्तकालय खोलने का इरादा
इस पुस्तकालय के प्रबंधक एमिराली उर्टेकिन ने बताया कि मूल रूप से केवल कचरा श्रमिकों एवं उनके परिवार के सदस्यों के लिये एक पुस्तकालय खोलने का इरादा था। मगर अब यह आम जनता के इस्तेमाल के लिये उपलब्ध है। ध्यान देने लायक बात यह है कि इस पुस्तकालय में जे.के. राउलिंग, चार्ल्स डिकन्स, जे. आर.आर. टॉल्किन, ओरहान पामुक और ‘फ़िफ़्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ के लेखक ई. एल. जेम्स सहित शीर्ष विदेशी और तुर्की लेखकों के विभिन्न प्रकार की कृतियां शामिल हैं।
काम इतना बढ़ गया है कि यह पुस्तकालय दिन में चौबीस घंटे खुला रहता है। बिल्डिंग को नई साज सज्जा से तैयार किया गया है। वहां एक कैफ़ेटेरिया, एक नाई की दुकान, लोगों के मिलने जुलने का क्षेत्र और कर्मचारियों के लिये दफ़्तर तक बना दिये गये हैं।
एमिराली उर्टेकिन ने आगे बताया, “अन्य तुर्की शहरों के लोग अब पुस्तकालय में किताबें भेजने के लिये डाक का व्यय भी स्वयं उठाते हैं। वहीं कचरा उठाने वाले कर्मचारी निरंतर कचरे में फेंकी जाने वाली किताबें लाकर यहां जमा करवाते हैं। सच तो यह है कि अभी 1,500 पुस्तकें अभी भी अलमारियों में रखी जानी बाक़ी हैं। पुस्तकें लगातार दान के रूप में भी पहुंच रही हैं और कचरा उठाने वाले कर्मचारी भी निरंतर पुस्तकें ला रहे हैं।”
यूरोप की सोच कुछ अलग
बहुत से ऐसे स्कूल भी उस इलाके में हैं जिनके पास अपना पुस्तकालय नहीं है। वहां के बच्चे सप्ताह में एक दिन आकर इन पुस्तकों का लाभ उठाते हैं। सेरहाट इस परियोजना से बहुत ख़ुश है। उसका कहना है, “पहले मैं चाहता था कि मेरे घर में एक पुस्तकालय हो। अब हमारे पास यहां एक पुस्तकालय है और यह अच्छा है। मैं यहां की सभी किताबें पढ़ना चाहता हूं।”
यूरोप की सोच कुछ अलग है। यहां लंदन में हमें अंडरग्राउंड और मेट्रो में लोग यात्रा करते हुए कुछ पढ़ते हुए दिखाई देते हैं। हर किसी के हाथ में कोई न कोई किताब रहती है। इससे समाज की सोच पता चलती है। भारत में टेलिविज़न और इंटरनेट ने पुस्तकों के महत्व को लगभग ख़त्म कर दिया है। हिन्दी में तो विशेष तौर पर साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने का चलन अंतिम सांसें लेता प्रतीत होता है। हमें शैलेन्द्र के गीत से सबक लेना होगा – “जो जिस से मिले सीखा हमने / ग़ैरों को भी अपनाया हमने!”
लेखक एवं फोटो - तेजेन्द्र शर्मा (वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और www.thepurvai.com के लंदन निवासी संपादक हैं).