किसी भी विचार में वाद और उसका विरोधी प्रतिवाद होते

कैसे हुई धार्मिकता की हार और राजनीति

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03,फरवरी 2024, (अपडेटेड 31,जनवरी 2024 12:44 AM IST)

गाजियाबाद : दुनिया कैसे चलती है। इसका एक जवाब अठारवीं सदी के जर्मन दार्शनिक जॉर्ज विल्हेम फ्रेडरिक हीगेल के फलसफ़े में है। हीगेल बोले कि ये वाद, प्रतिवाद और संवाद से चलती है। 

किसी भी विचार में वाद और उसका विरोधी प्रतिवाद होते हैं। वाद और प्रतिवाद में लड़ाई होती है और ये लड़ाई नए मुकाम,संवाद पर पहुंचती है। ये लड़ाई ही जीवन है। संवाद से फिर वाद और प्रतिवाद पैदा होगा ही। मार्क्‍स ने यहीं से बात ली और विचार शब्‍द एडिट करके वहां वस्‍तु रख दिया। बहरहाल, बात यहां दूसरी कहने की कोशिश कर रहा हूं।

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हिंदुत्व के हिमायती राजनीतिक दल की आईटी सेल ने हिंदू धर्म के सर्वोच्च प्रतिष्ठित संत पदवी शंकराचार्य के धारकों पर ही हमला बोल दिया है। करीब 1400 साल पहले जिस पद का गठन किया गया उसकी ऐसी हालत कर दी जाएगी, यह अकल्पनीय ही है।

शंकराचार्यों को जिस तरह से चर्चा के घेरे में ला खड़ा किया गया है और जिन लोगों ने ऐसा किया है, वो पूरी तरह से चौंकाने वाला है। ये काम कोई और राजनीतिक दल कर ही नहीं सकता था। शंकराचार्यों की हो रही दुर्गति से मुझे कोई कंसर्न नहीं है। 

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आदि शंकराचार्य के मत का खंडन, उनके अल्पायु में जाने के बाद अन्य दार्शनिकों ने ही कर दिया था। रामानुजाचार्य इसमें प्रमुख हैं और उनके अलावा भी मध्वाचार्य, निम्बा‍र्काचार्य वगैरह ने भी खंडन किया है। इसके बाद भी मठों या पीठ के शंकराचार्य होने की परंपरा चली आ रही है। 

शंकराचार्य का मत है कि मोक्ष या ब्रह्म (ब्रहृमा नहीं) हासिल करने के लिए ज्ञान के रास्ते पर चलना होता है। शंकर भक्ति मार्ग को नहीं चुनते, वो रामानुज करते हैं। ये तो है किताबी बात। हकीकत में किसी को मोक्ष मिला है या नहीं, इसका कोई सुबूत नहीं है कि मोक्ष होता भी है या नहीं, इसका भी। मोक्ष यानी ब्रह्म के बारे में जान जाना। बस इतना ही। यही लाइफ का टारगेट है। रामानुज, उनसे एग्री नहीं थे और उनको 'प्रच्‍छन्‍न बौद्ध' कहते थे यानी हिडेन बौद्ध। ऊपर से कुछ और भीतर से कुछ और बात करते हैं तो वेदांत की लेकिन तर्क का स्‍टाइल बौद्ध दार्शनिकों का है। 

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मैं हीगेल को दोबारा जीवित होते देख रहा हूं। प्रतिवाद के बीज बाहर आ रहे हैं। वाद को चुनौती दे रहे हैं। कितना सामना कर सकेगे ये देखने वाली बात होगी। आखिरकार प्रतिवाद वाले भी शंकराचार्यों के यहां ED या बुलडोजर तो भेज नहीं पाएंगे। इससे एक चीज और एक्सपोज हुई है। वो ये कि धार्मिकता की हार हो चुकी है और राजनीति विजयी हुई है। राजनीति ने धार्मिकता को परास्त कर दिया है।

ये एक तरह से शुभ संकेत है वरना इस बात की आशंका प्रबल ही थी कि धार्मिकता के आदेशों का पालन राजनीति करेगी ही। मगर ऐसा नहीं हुआ बल्कि धार्मिकता की सत्ता को ही चुनौती दे दी गई है। ये एक तरह से धार्मिकता के पतन का संकेत भी हो सकता है। 

लेखक शोभित जायसवाल, पेशे से पत्रकार हैं.