पेड़ों को ट़ॉयलट में फ़्लश ना करें
लंदन: मुझे अपना बचपन याद है। जब हम रेलवे के घर में पंजाब के एक छोटे शहर मौड़ मंडी में रहा करते थे। बाऊजी वहां स्टेशन मास्टर थे। उससे पहले की यादें थोड़ी धुंधली हैं। मगर अच्छी तरह याद है कि गुसलखाना और पाख़ाना अलग-अलग होते थे और एक दूसरे से दूरी पर होते थे।
ज़ाहिर है कि आप हैरान अवश्य होंगे कि आज का संपादकीय कैसा है जिसमें गुसलख़ाने और पाख़ाने की बात हो रही है। तो मैं आपको बताना चाहूंगा कि आज के संपादकीय में पाख़ाना – जिसे हम आजकल माडर्न भाषा में टॉयलेट कहते हैं – केन्द्र बिन्दु में है।
रेलवे क्वार्टरों में हम पढ़े लिखे लोग होने का नाटक करते थे तो पाख़ाने को लैट्रीन कहते थे और गुसलख़ाने को बाथरूम। हमारे यहां लैट्रीन ऐसी होती थी जिसमें एक लोहे का बना लंबा से आयताकार पॉट होता था। सारे परिवार का मल्ल उसी पॉट में इकट्ठा हो जाता और जमादार या जमादारनी आकर उस मल्ल को उठा कर ले जाते और पॉट को पानी से साफ़ कर देते।
उसके बाद अगली स्थिति आई कि घर की लैट्रीन में एक गड्ढा खोदा जाता था और वो ख़ासा गहरा होता था। उसी में सारा मलमूत्र इकट्ठा होता रहता और धरती में जज़्ब होता रहता। शहरों में तरक्की के साथ-साथ पहले एक इंडियन स्टाइल का फ़्लश बनना शुरू हुआ जिसे पुराने भारतीय तरीके से ही बैठ कर इस्तेमाल किया जाता था। इस तरह बैठने से घुटनों की एक्सरसाइज़ हो जाया करती थी। अभी तक लैट्रीन और बाथरूम अलग-अलग ही होते थे।
मुंबई जैसे शहरों में घर तो होते नहीं… फ़्लैट ही होते हैं। वहां तेज़ी से यूरोप और अमरीका की तर्ज़ पर टॉयलट का निर्माण होने लगा। अब बाथरूम और फ़्लश एक ही जगह बनने लगे। और फ़्लश भी यूरोपीय ढंग से कुर्सी-नुमा हो गये। यानी कि आप एक बार टॉयलट में घुसे तो सब पूरा करके ही बाहर निकले।
जब यूरोपीय सिस्टम शुरू हुआ तो साथ ही शुरू हुआ टॉयलट टिशु का इस्तेमाल। फ़िल्म गर्म हवा में बूढ़ी दादी झल्लाते हुए कहती भी है, “ये मुए अंग्रेज कितने गंदे होते हैं। पानी से धोते नहीं काग़ज़ से साफ़ कर लेते हैं।”
काग़ज़ का इस्तेमाल हमारे जीवन में हर जगह होता है। पुस्तकें, समाचार पत्र, सामान की रसीदें, प्रिंटर के लिये पेपर, पोस्टर, लिफ़ाफ़े, ग्रीटिंग कार्ड्स, पोस्ट कार्ड, किचन टॉवल, पेपर नैपकिन और टायलट टिशु – ये सब काग़ज़ से ही बने होते हैं। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि काग़ज़ बनता है पेड़ों से। यानी कि काग़ज़ बनाने के लिये पेड़ काटने पड़ते हैं। पेड़ जिस तेज़ी से कटते हैं उस गति से लगाए नहीं जाते। पेड़ों के कटने से पर्यावरण पर असर पड़ता है और एक शब्द जो हमें बुरी तरह परेशान करता है, उसे कहते हैं – ग्लोबल वार्मिंग।
हमें याद रखना होगा कि पेपर नैपकिन या किचन टॉवल हम बस एक बार हाथ पोंछने के लिये प्रयोग में लाते हैं और फिर कचरे की बिन में फेंक देते हैं। जिन दिनों ज़ुकाम लगा होता है तो नाक पोंछने के लिये टिशु पेपर बहुतायत में इस्तेमाल होता है और उसके माध्यम से ज़ुल्म बेचारे पेडों पर होता है।
टॉयलेट टिशु या टॉयलेट पेपर को हम पेड़ों की कटाई के पीछे एक बड़ा अपराधी मान सकते है। वर्ल्ड वॉच मैगज़ीन की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में हर दिन तकरीबन 2.70 लाख पेड़ भिन्न ज़रूरतों के लिये काट दिए जाते हैं और इनमें से 10% पेड़ों की कटाई के लिए केवल और केवल टॉयलेट पेपर ज़िम्मेदार हैं। एक तो विश्व की आबादी बढ़ रही है और उस पर तुर्रा यह कि दुनियां भर के देश पश्चिमी शैली अपना रहे हैं। जब यूरोपीयन स्टाइल का पॉट लगेगा तो टिशु पेपर का इस्तेमाल बढ़ेगा ही।
वैसे अरबी देशों ने एक ‘मुस्लिम शॉवर’ की शुरूआत की थी जो अब पश्चिमी देशों के प्रवासी और भारत के मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में भी अपनाया जा रहा है। इससे आप पॉट तो युरोपीयन इस्तेमाल करते हैं मगर टिशु से पोंछने के स्थान पर शॉवर जेट का इस्तेमाल कर अपने आप को धो लेते हैं।
अब एक हैंड शॉवर लगाना शुरू किया गया है। जिसे हाथ में पकड़ कर पानी से सफ़ाई की जा सकती है। मगर यहां भी बहुत से नख़रे वाले लोग पहले टिशु का इस्तेमाल करके पोंछते हैं और उसके बाद धोते हैं। यानी कि न तो पेड़ों पर मेहरबानी करते हैं और न ही पानी पर। उपभोक्ताओं की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए पेपर कंपनियां बहुत तेज़ी से पेड़ों को काट रही हैं।
हमारी सभ्यता के विकास में टॉयलेट पेपर एक महत्वपूर्ण खोज है और निजी स्वच्छता के लिये इसका सबसे पहला इस्तेमाल छटी शताब्दी में चीन में हुआ था। चौदहवीं सदी तक पहुंचते-पहुचते टॉयलेट पेपर का आधुनिक रूप में इस्तेमाल होने लगा था। इसका ज़िम्मेदार भी हम चीन को ही ठहरा सकते हैं। इसका सबसे अधिक इस्तेमाल शिनज़ियांग प्रांत में हुआ करता था। यहीं से पेड़ों पर अत्याचार की स्थापना हो गई थी।
एक सवाल उठना स्वाभाविक है कि आख़िर आजकल किस-किस देश के नागरिक सबसे अधिक टॉयलेट पेपर का इस्तेमाल करते हैं। एक जांच के बाद यह नतीजा सामने आया कि विश्व में सबसे अधिक टॉयलेट पेपर अमरीका में इस्तेमाल किया जाता है। यहां एक व्यक्ति औसतन एक सप्ताह में लगभग 3 रोल टॉयलेट पेपर इस्तेमाल में लाता है। जब देशों के आंकड़ों की तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि अमरीका में एक वर्ष की प्रति व्यक्ति खपत टॉयलेट पेपर के 141 रोल पड़ती है। वहीं जर्मनी में यह आंकड़ा 134; ब्रिटेन में 127, जापान में 91 और चीन में 49 है।
हैरान करने वाले आंकड़े बताते हैं कि अमरीका में टिशु पेपर का बाज़ार लगभग ₹2,213 अरब का है। उत्पादन के हिसाब से तीन कंपनियां इस बिज़नेस की लीडर हैं – प्रॉक्टर एण्ड गैंबल, जॉर्जिया-पैसिफ़िक औक किंबरली क्लार्क। ध्यान देने लायक बात यह है कि ये कंपनियां टिशु बनाने के लिये री-साइकल किये सामान का इस्तेमाल नहीं करती हैं। इसका अर्थ यह है कि ये कंपनियां अपने प्रॉडक्ट की मुलायमियत को बरकरार रखने के लिये फ़िज़ूल में पेड़ कटवाए जा रही हैं।
दरअसल टॉयलेट पेपर भी एक प्लाई, दो प्लाई, तीन प्लाई और चार प्लाई तक आते हैं। सरकारी दफ़्तरों और रेलवे जैसी संस्थाएं अपने कार्यालय में सिंगल प्लाई टॉयलेट टिशू ही इस्तेमाल करते हैं। सस्ता पड़ता है। मगर उसके बाद अपने-अपने आर्थिक स्तर के हिसाब से लोग महंगे से महंगे टॉयलट पेपर ख़रीदते हैं। चार प्लाई वाले टिशू पेपर डीलक्स क्वालिटी के माने जाते हैं।
अकेला अमरीका टॉयलट टिशू पेपर बनाने के चक्कर में पेड़ काटने के साथ-साथ 1655 अरब लीटर पानी भी बरबाद करता है। और इस चक्कर में हर साल 1.5 करोड़ पेड़ काट दिये जाते हैं। पर्यावरण का सत्यानाश करके विश्व भर में ओज़ोन लेयर और ग्लोबल वार्मिंग का लेक्चर भी अमरीका ही पूरे विश्व को देता रहता है।
अमरीकी कंपनियां अकेले इतना पेपर इस्तेमाल करती हैं, जिससे पृथ्वी को तीन बार लपेटा जा सकता है। ऐसे में पेपरलेस होते बिजनस को बेहतर कदम कहा जा सकता है। ब्रिटेन के बैंक अब अपनी मासिक स्टेटमेंट प्रिंट करके नहीं भेजते। ऑनलाइन उपलब्ध करा देते हैं आप जब चाहें खोल कर देख लें। सुपर मार्केट में भी जब आप सौदा ख़रीदते हैं तो आपसे पूछा जाता है, “क्या आप रसीद लेना चाहेंगे?” इसके पीछे एक ही मंशा होती है कि किसी भी तरह काग़ज़ को बचाया जा सके।
रेस्टॉरेंट, शादी ब्याह की पार्टियों, जन्मदिन के अवसर पर ना जाने कितने मेज़पोश काग़ज़ के बने लगाए जाते हैं। हर प्लेट के लिये एक या दो पेपर नैपकिन इस्तेमाल किये जाते हैं। बस एक बार हाथ पोंछे और कचरे की टोकरी में डाल दिये। ठीक इसी तरह पेपर प्लेट और पेपर कप भी इस्तेमाल होते हैं।
कोरोना काल के बाद तो वेट टिशू और एंटी-बैक्टीरियल टिशू भी फ़ैशन में आ गये हैं। अब हर दूसरा आदमी वेट-टिशु से अपना चेहरा साफ़ करता दिखाई दे जाता है।
इन्सान की प्रकृति कुछ ऐसी है कि वह चाहता है कि दुनिया तो बदल जाए मगर उसे ख़ुद को बिल्कुल ना बदलना पड़े। सरकार या सरकारें सब कुछ ठीक कर दें, मगर उससे कुछ करने को ना कहा जाए। हम पानी भी व्यर्थ बहाएंगे, टॉयलेट पेपर भी इस्तेमाल करेंगे, फ़्रिज, एअर कंडीशनर, कार, स्कूटर सब इस्तेमाल करेंगे मगर सरकार किसी तरह पर्यावरण के स्वच्छ कर दे।
एक ज़माना था जब हम अपनी जेब में रुमाल रखा करते थे… अपने साथ छोटा तौलिया रखा करते थे। भोजन के बाद वॉश बेसिन पर जाकर हाथ और मुंह धोया करते थे और तौलिये से पोंछ लिया करते थे। जैसे-जैसे पश्चिम का प्रभाव बढ़ा हम काग़ज़ी होते चले गये। और इसी काग़ज़ ने हमारे पेड़ों को हमसे छीनना शुरू कर दिया। अब हम समझ नहीं पा रहे कि, पर्यावरण को बचाया कैसे जाए!
लेखक लंदन निवासी वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं.