अमरीका में चुनावी हिंसा
लंदन: अमरीकी फ़िल्मों में पिस्तौल और बंदूकें इतनी आसानी से चलती हैं जैसे कोई प्रेम के गीत गा रहा हो। इन फ़िल्मों का असर भारत की फ़िल्मों पर भी हुआ है और हमारी फ़िल्मों में भी हिंसा का नंगा नाच दिखाई देने लगा है।
हिरोशिमा और नागासाकी से लेकर वर्तमान रूस-यूक्रेन युद्ध तक अमरीका पूरे विश्व में गोले बारूद का धुआं फैलाता रहा है। सिनेमा में मोज़ेज़, बेन-हर और एलसिड जैसे किरदार निभाने वाले चार्ल्टन हेस्टन राइफ़ल एसोसिएशन के मुखिया का रूप धर लेते हैं। और अब चुनाव में राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी डॉनल्ड ट्रम्प पर जानलेवा हमले ने तो साबित कर दिया है कि हिंसा अमरीका नसों में लहू के साथ बहती है।
हर साल कितनी वारदातें सामने आती हैं जब अमरीका के स्कूल और कॉलेजों में गोलियां चल जाती हैं। हैरानी की बात यह है कि अमरीका में हथियारों की ख़रीद-फ़रोख़्त पर किसी तरह की पाबन्दी के पक्ष में कोई नियम कानून नहीं बनाए जाते। गन-लॉबी इतनी शक्तिशाली है कि किसी भी राष्ट्रपति में इतनी हिम्मत नहीं कि उनके विरुद्ध कोई कानून पास करवा सके।
राष्ट्रपति पद के रिपब्लिकन प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रंप ने पेंसिल्वेनिया में खुद पर हुए हमले पर बात करते हुए कहा कि उस वक्त वो खुद को मरा हुआ मान चुके थे. उन्होंने अपने ज़िन्दा होने पर टिप्पणी करते हुए कहा कि उन्हें लगता है जैसे ईश्वर ने उन्हें बचाया है या फिर किस्मत ने।
उन्होंने हैरानी भरे स्वर में कहा, “सबसे अविश्वसनीय बात यह थी कि मैंने न केवल अपना सिर घुमाया, बल्कि बिल्कुल सही समय पर और सही तरीके से घुमाया।” उन्होंने कहा कि जो गोली उनके कान को छू गई, वो उनकी जान भी ले सकती थी।
बीबीसी के एक समाचार के अनुसार, “चेहरे पर ख़ून, हवा में लहराती हुई मुट्ठी और सीक्रेट सर्विस के अधिकारियों की मदद से मंच से उतरते पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की असाधारण तस्वीर न केवल इतिहास रच सकती है बल्कि यह नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव की दिशा भी बदल सकती है।”
ट्रम्प पर हमले की जांच में सामने आया है कि अमेरिकी अधिकारियों को कई हफ्ते पहले ईरान से ट्रम्प को मारने के लिए रची जा रही साजिश की जानकारी मिली थी। अमेरिकी मीडिया सीएनएन के मुताबिक, सीक्रेट सर्विस ने इंटेलिजेंस मिलते ही ट्रम्प की सिक्योरिटी बढ़ा दी थी। हालांकि, ट्रम्प पर हमला करने वाला थॉमस इसी साजिश का हिस्सा था या नहीं इसकी कोई जानकारी नहीं मिली है।
हमलावर की पहचान 20 साल के युवक थॉमस क्रूक्स के तौर पर हुई थी। उसने एआर-15 राइफ़ल से 8 गोलियां चलाई थीं। फायरिंग के तुरंत बाद सीक्रेट सर्विस के अफ़सरों ने हमलावर को मार गिराया था। वह रिपब्लिकन पार्टी का ही समर्थक था।
मीडिया रिपोर्ट्स में सवाल उठाए जा रहे हैं कि जब पहले से ही हमले का डर था, तब भी ट्रम्प की सुरक्षा में चूक कैसे हो गई। इससे पहले मंगलवार को सीएनएन ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया था कि हमलावर ने जिस इमारत की छत से ट्रम्प पर हमला किया, उसकी दूसरी मंजिल पर ही सर्विस यूनिट के स्नाइपर्स तैनात थे।
चीन सही मायने में एक पूंजीवादी देश है। चीन ने बाकायदा ट्रंप की मुट्ठी बांधे हुए जो तस्वीर है, उसकी टीशर्ट बनाकर लॉन्च भी कर दी… कीमत रखी 450 रुपये मात्र. सवाल अमेरिका के गन कल्चर पर भी है. बोया पेड़ बंदूक का तो शांति कहां से होय… दुनियाभर में नये-नये युद्ध शुरू कराकर हथियार बेचने वाले अमेरिका में..ट्रंप भले ही शूटर की गोली से बच गए हों लेकिन टॉफी बिस्कुट कैंडी की तरह किराने की दुकानों पर बंदूक और गोली बेचने वाले अमेरिका का गन कल्चर… अब उसके लिए ही भस्मासुर बन चुका है।
कुछ दिन पहले ही अमरीका से एक चौंकाने वाली ख़बर सामने आई है। अमेरिकन राउंड्स नाम की एक स्टार्ट-अप कंपनी अब बुलेट बेचने के लिए यूएस में वेंडिग मशीनें लगा रही है, जो कुछ शहरों में शुरू भी हो गई हैं। अमेरिका में किराना स्टोर में दूध ब्रेड जैसी आम जरूरत की चीजों के साथ गोलियां बेचने के लिए वेंडिंग मशीन लगाई जा रही हैं। ये खरीद प्रक्रिया को सरल बनाने और जिम्मेदार बंदूक मालिकों के लिए पहुंच बढ़ाने की कोशिश के तहत किया जा रहा है। कंपनी के संस्थापक जॉनडो का मानना है कि किराना स्टोर पर बुलेट बेचा जाना भविष्य की कल्पना है। उनका कहना है कि गोली और हथियार खरीदना भी वेंडिंग मशीन से किसी अन्य उत्पाद को खरीदने जितना आसान होना चाहिए।
सोचने की बात यह है कि जिस देश की सोच में हिंसा बसी हो, वो देश विश्व भर का चौधरी बन कर लोकतंत्र और मानवाधिकार की बात कैसे कर सकता है। वैसे भी हॉलीवुड की वेस्टर्न थीम का फ़िल्मों में घोड़ों पर सवार मैली-कुचैली दाढ़ी वाले लोग बंदूकें दाग़ते दिखाई देते रहते हैं। क्लिंट ईस्टवुड, जॉन वेन औरी ली वैन क्लिफ़ उन फ़िल्मों के ख़ुदा हैं। यानी कि आप स्वयं तो गोलियां दूध और चिप्स की तरह वेंडिंग मशीन से बेचेंगे मगर तालिबान को गाली देंगे क्योंकि वो अपने बच्चों तक को गोली चलाना सिखाते हैं। भाई आप में और उनमें फ़र्क क्या है। आप पैंट कोट पहन कर बंदूक चलाते हैं और सभ्य होने का नाटक करते हैं जबकि वो अपनी पारंपरिक पोशाक में और अपनी भाषा में हिंसा करते हैं – दोनों के कुत्ते टॉमी नहीं बन सकते… कुत्ते ही रहेंगे!
अमरीका को प्रवचन देने की बुरी आदत है। वह पूरी दुनिया को सलाह देने से बाज़ नहीं आता। मगर पूरी दुनिया में बमबारी भी वही करता दिखाई देता है। भारत के चुनावों में हिंसा की बात करता है मगर अपने राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी पर गोली चलने देता है। केजरीवाल पर मुकद्दमा चलने पर अमरीका को परेशानी होती है। मगर डॉनल्ड ट्रंप पर देशद्रोह का मुकद्दमा होने देता है। भारत में अल्पसंख्यकों पर ज़ुल्म की दुहाई देता है मगर अपने ही देश के विद्यार्थियों को फ़िलिस्तीन के पक्ष में धरना प्रदर्शन के जुर्म में देश निकाले का आदेश सुना देता है।
वहीं एक बात और भी ध्यान देने लायक है। ट्रंप पर हुए जानलेवा हमले पर सरकारी पक्ष और अन्य नेताओं ने गंभीरता से तमीज़दार भाषा में प्रतिक्रियाएं दीं। यदि बात भारत की होती तो धड़ाधड़ इस तरह की घटना पर निकृष्ट राजनीतिक बयान दिया जा रहे होते… शायद यह भी कहा जाता कि पिछली बार पुलवामा था अब की बार ख़ुद पर गोली। “ज़रा पता लगाया जाए कि इतना परफ़ेक्ट निशानेबाज़ ढूंढा कहां से जो कान को छूते हुए गोली निकाल गया!”
लेखक लंदन निवासी वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं.