स्कूल में नमाज़ और डेढ़ लाख पाउण्ड
लंदन : मैं अपने जीवन के 46 वर्ष भारत में रहा और अब 25 वर्षों से लन्दन में रह रहा हूं। मुझे अब इतना अनुभव है कि मैं दोनों देशों के लोकतंत्र की तुलना कर सकूं। पिछली चौथाई सदी ब्रिटेन में रहने का अर्थ यह कदापि नहीं कि मैं भारत से पूरी तरह कट गया हूं। इंटरनेट के ज़रिये तो भारत से जुड़ा ही रहता हूं, वैसे भी एक साल में दो से दीन बार तो भारत का चक्कर लगता ही रहता है।
मुझे बीबीसी लन्दन में प्रसारक का अनुभव तो है ही; साथ ही पुरवाई के साप्ताहिक संपादकीय के लिये भी समाचारों के साथ मित्रता बनाए रखता हूं। इसलिये भारत और ब्रिटेन दोनों के राजनीतिक घटनाक्रम पर नज़र बनाए रखना आसान रहता है।
यह बात तो सच है कि भारत और ब्रिटेन कहने को लोकतंत्र हैं, मगर भारत का इतिहास बताता है कि लोकतंत्र भारत के लिये एक नयी और आयातित सोच है। रामायण और महाभारत काल से भारत में राजशाही ही चलती रही – राजा और प्रजा! यहां तक कि बहुत सी कहानियों की शुरूआत ही इस वाक्य से होती थी – “एक था राजा…।” 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद ही संसदीय कार्य प्रणाली को भारत ने अपनाया। ज़ाहिर है कि यह कार्य प्रणाली हमने ब्रिटेन से उधार ली। ब्रिटेन में यह सिस्टम 1832 में लागू हो गया था। हालांकि ब्रिटेन में आज भी राजा या रानी होते हैं, मगर उनका राजनीतिक महत्व भारत के राष्ट्रपति जितना ही होता है। सरकार प्रधानमंत्री और उनकी मंत्री परिषद ही चलाती है।
भारत तो लगभग एक हज़ार साल विदेशी आक्रांताओं का ग़ुलाम ही रहा। इसलिये यहां तो लोकतंत्र जैसी किसी बात के बारे में सोचना भी गुनाह होता था। बादशाह चाहे अच्छा हो या फिर रंगीला… राज उसी का चलता था। हम तो इतने महान हैं कि हमने एक विदेशी कंपनी को भारत पर राज करने दिया। यह शायद पूरे विश्व में एकमात्र उदाहरण होगा।
जब मैं भारतीय टीवी चैनलों पर किसी भी विषय पर बहस होते देखता हूं तो भारतवंशी होने के कारण ख़ासी दुविधा महसूस करता हूं कि हम आखिर ऐसे क्यों हैं। चाहे एंकर हो या फिर राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ता, लगता है सब को चिल्लाने की बीमारी सी लग गई है। रेलगाड़ी की स्पीड से बोलना और लगभग पागलों की तरह चिल्लाना इन टीवी चैनलों की बातचीत की पहचान बन गई है। वहीं जब बीबीसी पर राजनीतिक बहस देखता हूं, तो लगता है कि दूसरे ही ग्रह पर आ गया हूं। सब शालीनता से, बिना उत्तेजित हुए अपनी-अपनी बात कह रहे होते हैं। इस मामले में आजकल बहुत कम देखे जाने वाले दूरदर्शन में बहस का स्तर तथाकथित महान निजी चैनलों से कहीं अधिक सोबर दिखाई देता है।
पुरवाई के पाठक सोच रहे होंगे कि मैं कैसी रामकथा ले कर बैठ गया हूं। आख़िर ऐसा हुआ क्या है जो मैं ऐसे प्रवचन देने बैठ गया हूं। दरअसल लंदन के एक स्कूल में ऐसी घटना घटी है कि मुझे कुछ समय पहले भारत में ऐसी ही एक घटना की याद दिला गई। फिर मैं एकदम सोच में पड़ गया कि भारत में इस मुद्दे पर भारत में टीवी चैनलों और समाचार पत्रों के अतिरिक्त राजनीतिक दलों ने कितना बेहूदा रवैया अपनाया था और यहां लंदन में सारी बातचीत कितनी शालीनता से निपटाई गई।
मुझे याद पड़ता है कि भारत के कर्नाटक राज्य में कुछ विद्यार्थियों ने स्कूल में हिजाब पहन कर आने की ज़िद की थी और स्कूल मैनेजमेम्ट का कहना था कि यह स्कूल यूनिफ़ार्म के नियमों के विरुद्ध है। इस विषय को लेकर पूरे भारत में जो हंगामा हुआ, हमारे लिये समझ पाना आसान नहीं था। ज़ाहिर सी बात है कि जब हम किसी भी स्कूल में दाख़िला लेते हैं हमें वहां के नियम कायदे पहले से बतला दिये जाते हैं। फिर उन्हीं कायदे कानूनों की हम धज्जियां उड़ाते हैं और उस पर राजनीति करने लगते हैं। यहां तक कि उसे चुनावी मुद्दा भी बना लेते हैं।
कुछ इससे मिलता जुलता किस्सा ब्रिटेन के एक स्कूल का भी है। बात सप्ताह भर पहले की है। लंदन के ब्रेंट इलाके के मिखेल कम्यूनिटी स्कूल में एक छात्रा ने स्कूल पर अदालत में मुकद्दमा कर दिया कि उसे स्कूल के लंच टाइम में नमाज़ पढ़ने की सुविधा महैय्या करवाई जाए। इस स्कूल में चालीस प्रतिशत विद्यार्थी मुस्लिम हैं। इस स्कूल की पूरे लंदन में उच्चस्तरीय प्रतिष्ठा है। यहां के रिज़ल्ट बहुत अच्छे रहते हैं। यहां की प्रिंसिपल कैथरीन बीरबल सिंह ब्रिटेन की सबसे अधिक अनुशासन प्रिय प्रिंसिपल मानी जाती हैं। वे अपने स्कूल की बेहतरी के लिये पूरी तरह से समर्पित हैं।
जब प्रिंसिपल कैथरीन बीरबल सिंह ने इस छात्रा को ऐसी किसी प्रकार की सुविधा प्रदान करने से इन्कार कर दिया तो उस छात्रा और उसकी माँ ने स्कूल पर अदालत में मुकद्दमा दायर कर दिया। प्रिंसिपल और स्कूल पर धार्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार का उल्लंघन करने का इल्ज़ाम लगाया गया और कहा गया कि यह प्रतिबंध भेदभावपूर्ण था। ज़ाहिर है कि मुद्दा मीडिया में भी उछला। ब्रिटेन का मीडिया इतना सतर्क है कि इस छात्रा का नाम और उसकी माँ का नाम पूरी तरह से छिपा कर रखा गया।
पिछले सप्ताह लंदन की हाई कोर्ट ने इस मुकद्दमें पर जस्टिस लिंडन ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा कि किसी भी विद्यार्थी को यह हक़ नहीं बनता कि वह अपनी धार्मिक सोच स्कूल के तमाम विद्यार्थियों पर थोपने का प्रयास करे। हैरानी की बात यह है कि जब तक इस मुकद्दमे पर हाई कोर्ट का निर्णय सार्वजनिक नहीं हुआ, इस पर न तो कहीं कोई चर्चा हुई और न ही कोई विवाद खड़ा हुआ। ब्रिटेन के अधिकांश नागरिकों को समाचार पत्रों या ऑनलाइन समाचारों से ही इस ख़बर के बारे में सूचना मिली।
क्योंकि यह स्कूल ब्रिटेन के सबसे बेहतरीन स्कूलों में से एक है, इसलिये कोर्ट के इस निर्णय का प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने स्वागत किया। साथ ही महिला एवं समानता मंत्री सुश्री केमी बादेनॉक ने अदालत के इस निर्णय को उन ताकतों के विरुद्ध जीत बताया जो कि हमारी सार्वजनिक संस्थाओं को नष्ट करने का प्रयास कर रही हैं।
प्रिंसिपल कैथरीन बीरबल सिंह ने भी अदालत के निर्णय का स्वागत करते हुए इसे लंदन के तमाम स्कूलों के लिये जीत बताया। उन्होंने आगे कहा, “किसी भी स्कूल को इस बात की छूट होनी चाहिये कि वह अपने विद्यार्थियों की भलाई के लिये क्या कदम उठाये। एक विद्यार्थी और उसकी माँ को यदि स्कूल के किसी निर्णय से आपत्ति है, तो इस कारण से स्कूल सभी विद्यार्थियों के प्रति अपना दृष्टिकोण नहीं बदलना चाहिये।
पुराने ट्विटर और आज के ‘X’ पर अपने विचार रखते हुए सुश्री केमी बादेनॉक ने पोस्ट किया कि – “किसी भी विद्यार्थी को अपने विचार स्कूल के पूरे विद्यार्थियों पर थोपने का कोई हक़ नहीं बनता। समानता एक ढाल तो बन सकती है, मगर तलवार नहीं। अध्यापकों को धमका कर झुकाने का प्रयास नहीं किया जाना चाहिये। एक मुस्लिम संस्था ने भी ‘X’ पर अपनी पोस्ट डालते हुए हाई कोर्ट के इस निर्णय पर अफ़सोस ज़ाहिर किया है। – “यह निर्णय मुस्लिम छात्रों पर निशाना साध रहा है। हाल ही के सरकारी उग्रवाद की परिभाषा का हिस्सा है ये। किसी भी विद्यार्थी को अपने मज़हब को शांतिप्रिय तरीके से मानने के लिये उसके पीछे पुलिस नहीं लगाई जानी चाहिये।”
संबद्ध विद्यार्थी का कहना है कि पूजा नीति लागू होने से बहुत पहले से वह और उसकी सहेलियां जानती थीं कि स्कूल में पूजा नमाज़ की अनुमति नहीं है। इसलिये वह छूटी हुई नमाज़ों की भरपाई घर जा कर करती थी। वहीं शिक्षा सचिव जिलियन कीगन का मानना है कि इस मामले में “सही निर्णय” स्कूल की प्रिंसिपल ही ले सकते हैं। श्रीमती बीरबल सिंह ने पूजा नमाज़ नीति मार्च 2023 में लागू की थी जब उन्होंने देखा कि लगभग 30 विद्यार्थी स्कूल के मैदान में अपने यूनिफ़ार्म कोट को नीचे बिछा कर सामूहिक रूप से नमाज़ अदा करने लगे।
स्कूल के वकीलों का स्कूल के निर्णय के बारे में कहना है कि इतनी बड़ी संख्या में विद्यार्थियों का सामूहिक रूप से खुले मैदान में नमाज़ अदा करना किसी ‘संगठित अभियान’ से कम नहीं है। उन्होंने अदालत को यह भी बताया कि स्कूल को मैत की धमकियां दी जा रही थीं, बम की अफ़वाह, विद्यार्थियों से दुर्व्यवहार और इस्लामोफ़ोबिया के झूठे आरोपों का निशाना बनाया जा रहा था। ध्यान देने लायक बात यह है कि ना तो लेबर पार्टी ने इस मुद्दे पर राजनीति की और न ही सत्तारूड़ दल ने इसे बहस का मुद्दा बनाया। बीबीसी और स्काई टीवी ने इसे उतना ही महत्व दिया जितना दिया जाना चाहिये था।
एक आम ब्रिटिश नागरिक को शिकायत इस बात की भी है कि एक विद्यार्थी को स्कूल में नमाज़ पढ़ने की अनुमति ना मिलने पर उसने और उसकी माँ ने अदालत में केस दायर किया। माँ ने दावा किया कि वह ग़रीब है और ‘लीगल एड’ यानी कि सरकारी कानूनी सहायता के लिये आवेदन किया। इस मुकद्दमे में टैक्स अदा करने वाली मासूम जनता के एक लाख पचास हज़ार पाउण्ड यानी कि डेढ़ करोड़ भारतीय रुपये ख़र्च हो गये। फिर दावा किया जाता है कि मज़हब तो किसी भी नागरिक का निजी मसला है। यदि मसला निजी है तो पूजा अर्चना घर में की जाए। किसी की निजी सोच के कारण ख़मियाज़ा आम टैक्स अदा करने वाले मासूम क्यों भुगतें!
लेखक लंदन निवासी वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं.